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Tuesday, May 13, 2014
Friday, August 26, 2011
देश के नागरिकों से एक आग्रह
फिर भी बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो अन्ना के मुहिम में शामिल होना तो चाहते हैं लेकिन कुछ-न-कुछ ऐसी मजबूरी सामने आ जाती है जो उन्हें अन्ना के साथ खड़ा होने नहीं दे रही है या वह अन्ना की मुहिम में अपना योगदान नहीं कर पा रहे हैं। वैसे लोगों की संख्या हजारों, लाखों नहीं करोड़ों में है। इसमें हम आैर आप भी हैं।
हम आैर आप अन्ना की मुहिम का समर्थन 'यथा शक्ति यथा भक्ति" के मुताबिक भी कर सकते हैं, वह भी बिना दिनचर्या को बिगाड़े। न ज्यादा समय का खर्च आैर न ही ज्यादा आर्थिक नुकसान। अन्ना के मुहिम को बल देने के लिए आपका पचास पैसा बहुत बड़ा योगदान दे सकता है।
पचास पैसा हर कोई खर्च कर सकता है, चाहे जैसी भी परिस्थिति हो। आपको सिर्फ डाकघर तक जाना है। आप जहां भी रहते हैं, या जहां भी हैं, उससे जो भी डाकघर पास पड़ता वहां जाएं पोस्टकार्ड खरीदें आैर प्रधानमंत्री को पत्र लिखें।
फिर देर किस बात की है। डाकघर पहंुचिए आैर पत्र लिख डालिए प्रधानमंत्री के नाम ...।
प्रधानमंत्री के नाम लिखे पत्र में क्या लिखना है, यह आपके स्वविवेक पर निर्भर करता है। आप चाहें तो आम नागरिक होने के नाते सरल शब्दों में अन्ना के सशक्त जनलोकपाल बिल के समर्थन में पत्र लिख सकते हैं या फिर आप आस-पास गैर कानूनी तरीके से होने वाले कार्य निष्पादन के बारे में भी पत्र में लिख सकते हैं।
प्रधानमंत्री के नाम पोस्टकार्ड लिखिए, अन्ना की मुहिम को बल देने के लिए। आपका यह छोटा सा अंशदान आैर श्रमदान देश के भविष्य, सुरक्षा, संरक्षा आैर सवद्र्धन के लिए बहुत जरूरी है। इससे आपकी दिनचर्या पर बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन आपको एक सुखद अहसास जरूर होगा कि आपने भी अन्ना की मुहिम को आगे बढ़ाने में योगदान दिया। वह भले ही श्रीराम सेतु निर्माण में तल्लीन गिलहरी के योगदान जैसा क्यों न हो।
देश के प्रधानमंत्री का पता है-
प्रधानमंत्री कार्यालय
साउथ ब्लॉक, रायसिना हिल
नई दिल्ली-110001
निवेदक- दीपक राजा
अन्ना मुहिम का समर्थक
Thursday, December 2, 2010
National Seminar On “E -Waste Management and Recycling in India- Issues and Challenges”
दलाई लामा को जामिया ने दी डाक्टरेट की उपाधि
दलाई लामा को डाक्टरेट की उपाधि देने का कार्यक्रम पहले ही निर्धारित था लेकिन समझा जाता है कि चीन के साथ कूटनीतिक संबंधों के मद्देनजर तिब्बत के इस आध्यात्मिक नेता को यह उपाधि प्रदान नहीं की जा सकी.
Wednesday, March 11, 2009
Another proud moment for Jamia institute
Professor, two students to represent Asia
They have won top awards in photography
NEW DELHI: Jamia Millia Islamia is going places, quite literally. After Loveleen Tandan, the co-director of Slumdog Millionaire and an alumna of the AJK Mass Communication Research Centre at Jamia who recently walked the red carpet at the Oscars, a team from the same institute is headed for Cannes next month.
Farhat Basir Khan, Professor of Media and Communication at the MCRC, and his two students, Neal Kartik and Pranab Kumar Aich, are going to represent Asia at the Sony World Photography Awards (SWPA) ceremony.
The SWPA has created an initiative -- “Student Focus” -- that provides a unique opportunity for universities and their students to get experience within the professional field. The programme stretches across the globe.
In this competition, students had to submit photographs on the environmental issues specific to their country. From each continent, ten countries are involved, with one university representing each country. The two winning students along with their professor from each continent will be flown to Cannes for workshops and lectures during SWPA Festival between April 14 and 19.
The Jamia team won the top honours for the Asia continent after beating top universities from nine countries, and will now attend the grand finale at Cannes to try and bring home the World Photography Award. The students presented pictures they took in Orissa underlining the issue of deforestation.
Prof. Khan, who has taught some prominent names of the film and television industry like Shah Rukh Khan, Roshan Abbas and Lovleen Tandan, feels this is a proud moment for both India and Jamia.
“It is a brilliant time for photography in India, especially after the advent of digital technology. Indian photographers never had it better. Their works are now being shown in some of the best galleries across the world,” he adds.
Sunday, February 22, 2009
'संगीत के नाम पर शोर न हो'
मशहूर सरोद वादक उस्ताद अमजद अली ख़ान की नज़रों में संगीत न तो कोई मजाक है और न ही कोई गुदगुदाने वाली चीज. संगीत के नाम पर होने वाले शोर से वे सहमत नहीं हैं.
वे कहते हैं कि आज के संगीत में केवल इसका मनोरंजक पक्ष ही देखने को मिलता है. टेलीविजन चैनलों पर गंभीर संगीत तो देखने को ही नहीं मिलता. उनका कहना है कि फ्यूजन संगीत का प्रयोग पूरी दुनिया में हो रहा है, लेकिन इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि लय खत्म नहीं हो.
स्कॉटिश चैंबर ऑर्केस्ट्रा के सहयोग से भारत के छह शहरों में होने वाले संगीत समारोह 'समागम' के सिलसिले में कोलकाता आए अमजद अली ने यहां इस अनूठे प्रयोग समेत विभिन्न मुद्दों पर खुल कर बातचीत की. पेश है इसके मुख्य अंश
समागम क्या है? इसका विचार कैसे आया?
समागम पूरब और पश्चिम में संगीत की साझा जड़ों को तलाशने का प्रयास है. दिसंबर, 2006 में जब डेविड मर्फी और अमज़द अली संगीत की संस्कृति और उपकरणों को एकसूत्र में बांधने के लिए साथ आए तभी समागम के आयोजन का विचार मन में आया. मैंने पहली बार स्कॉटलैंड के शास्त्रीय संगीतकारों के लिए धुन लिखी है. बीते साल जून में स्कॉटलैंड के सेंट मैग्नस फेस्टिवल में पहली बार समागम का आयोजन किया गया था. उसके बाद एडिनबर्ग, ग्लासगो और लंदन में भी इसका आयोजन हुआ.
श्रोताओं की प्रतिक्रिया कैसी रही है ?
लोगों ने पूरब और पश्चिम के इस मिश्रण को काफी पसंद किया है. हर समारोह में भारी भीड़ जुटती रही है. देश में यह अपनी तरह का पहला समारोह है. इसलिए इसमें लोगों की दिलचस्पी है. हर धुन की अपनी आत्मा होती है और विशुद्ध आवाज़ पर आधारित संगीत को किसी भाषा की ज़रूरत नहीं होती.
यूरोपियन ऑर्केस्ट्रा के प्रति झुकाव कैसे हुआ?
अपने शुरूआती दौर में मैं यूरोपीय शास्त्रीय संगीत सुना करता था. जाने-माने संगीत निदेशक राय चंद बोराल ने पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के प्रति मेरी दिलचस्पी पैदा की थी. वे मेरे पिता उस्ताद हफ़ीज अली खान के संगीत के मुरीद थे.
अमज़द अली ख़ान मानते हैं कि अभी फ्यूजन पर ज़ोर है
लगभग 20 साल पहले हॉंगकॉंग फिलार्मोनिक ने मुझे एक धुन बनाने का न्योता दिया था. इसके बाद अब स्कॉटिश चैंबर आर्केस्ट्रा ने एक घंटे की सिम्फनी लिखने के लिए संपर्क किया. मैंने एडिनबर्ग का कई बार दौरा करने और वहां के संगीतकारों से मिलने के बाद इसकी धुनें बनाईं. हमने इस परियोजना के लिए समागम नाम चुना.
पश्चिमी शास्त्रीय संगीत की खासियत क्या है?
इस समारोह में डेढ़ सौ से ज़्यादा संगीतकार जिस तरह एक लय में कार्यक्रम पेश करते हैं, वह सराहनीय है. आम तौर पर भारत में संगीतकार अकेले ही कार्यक्रम पेश करना पसंद करते हैं.
भावी योजनाएं क्या हैं?
भारत के दौरे के बाद ऑस्ट्रेलिया में भी समागम आयोजित करने की योजना है. बाद में चीन में ताईपेई सिम्फनी के कलाकारों के साथ मिल कर एक कार्यक्रम पेश करना है. चीन में इस आयोजन को 'शांति' नाम दिया है. यह इसी साल मई-जून में आयोजित होगा.
फ्यूजन संगीत का भविष्य कैसा है?
कई युवा संगीतकार फ्यूजन एलबम बना रहे हैं। ऐसे कुछ प्रयास बेहतर हैं तो कुछ औसत. इस क्षेत्र में अभी बेहतरी की काफी गुंजाइश है. फ्यूजन संगीत का प्रयोग पूरी दुनिया में हो रहा है, लेकिन इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि लय खत्म न हो.
साभार : बीबीसी
Wednesday, February 11, 2009
बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी...
सीनाजोरी इसलिए कि कभी एक दौर था जब शराब पीने वाले के विरोध में महिलाये ग्रुप में आती थी। उस दौर में भी ग्रुप की नेता सभ्रांत महिला होती थी। आज पब में शराब पीने वाली महिलाओं के समर्थन करने के लिए पिंक चड्डी अभियान चलाने वाली महिला ख़ुद को पत्रकार कहती है...वह भी एक सभ्रांत महिला होंगी... स्वयम्भू घोषित पत्रकार का स्वभाव कैसा होगा जिसके दिमाग की ये उपज है... आख़िर क्या साबित करना चाहतीं है महिला... ख़ुद के ग्रुप को लोकप्रिय बनाने का सस्ता औजार...
पब कल्चर कभी लोगों के लिए मिलने, बैठने और शांतचित्त मन से बात करने के लिए हुआ करता था, इसकी शुरुआत बुद्धजीवी लोगों ने किया था विदेशों में... वैसे ही जैसा इलाहाबाद में साहित्यकारों के लिए काफी हाउस हुआ करता था एक जमाने में। दिल्ली में कभी रफी मार्ग में आई एन एस बिल्डिंग्स के सामने कोन्स्टीट्यूसन क्लब कैम्पस में साहित्यकर मिल बैठ गप्प करते थे। आज कल वहाँ रेस्त्रुरेंट चलता है जो हिंदीजीवी लोगों के जेब खर्च से बाहर भी है और उनके नज़र में फिजूलखर्च भी...
क्यों लोग इसके पक्ष में कोई आन्दोलन खडा नही करते...
लगता है कल्चर का समर्थन करने वाले लोग ख़ुद को भारतीय कहलाने में शर्मिंदगी महसूस करते है...
देश के आजाद होने के छः दशक बीत जाने के बाद भी लोग विदेशी मानसिकता से क्यों बाहर नही आ पा रहे है... उसके पीछे मुझे सिर्फ़ और सिर्फ़ एक मकसद नज़र आ रहा है की ज़ल्दी से ज़ल्दी कैसे अपना नाम चर्चा में लाया जाए साथ में पैसा भी आए तो और भी अच्छा... ये दौर कभी पुरूषों में होता था... अब ये महिलाओं में भी आ गया... हो भी क्यों ना हमहीं लोगों तो नारा दिया बेटा बेटी एक समान, फिर समान होने की कोशिश करने वाली महिलाओं पर घमासान क्यों... ठीक है पब कल्चर में ही बराबरी की है महिलाये... हालाँकि यह केवल संकेत मात्र है... लोग तो इतने आगे हो गए की वहां तक अपनी सोच नही पहुँच पाई... चाहकर भी... कुछ अपनी संस्कृति रोक देती है तो कुछ अपनी शिक्षा...